२२६ रामवयंवर। सुनि हरपाइ सवै जीवन सो पाइ तहां उठि उठि धाइ धाइ भंटे चार वार हैं ॥ ४१३॥ . . . . ____ आगे करि हनूमान चले बलवान सवै, आइ मधु कानन में कीन्हें मधुपान हैं । दधिमुख कोस को कहा न माने मोद साने अतिहि अघाने पुनि कीन्हें ते पयान हैं । आये कीसनाथ पास परम हुलास छाये, पौनपूत कियो काज कीन्हें या बखान हैं। मिलिकै सुकंठ तिन्ह अति उतकंठित है गौने तहाँ जहाँ बैठे भानुकुल भान हैं ।। ४१४ ॥ देखत ही केसरी-किसोर कर जोरि दौरि, परिप्रभु पायनमें बोल्यो योही वैन है । जनकसुता को देखि आयो वाटिका में बैठी, रावरे प्रतापही ते देख्यो खल-पेन है ।चूड़ामनि देकै कहो फटिकसिलाकीवात, आपही को नाम जपि काटै दिन रैन है। घानन सो मारिये दतानन को चलि नाथ, सीता दुख एक मुख कहत वनै न है॥ ४१५॥ लंका पर चढ़ाई (दोहा) 'पवनसुवन के बचन सुनि, रघुपति कियो विचार!" विजय मुहरत आज ही, चलौ लगै नहिं वार ॥ ४६॥ (छंद चौवोला) । अस विचारि पुनि उटि रघुनायक मिले पवनसुत काहीं। 'योले वचन नयन जल ढारत तुहि सम को जर्ग नाहीं॥
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रामस्वयंवर।