पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२३

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CH रामस्वयंवर । लोकप इत्र सामंत जेहि, वंदत नित पद चूमि ॥३०॥ कुसल समर्थ सुसचिव सब, सहित सु दसरथ राज । अवधपुरी सोभिन भयो, जिमि कर-जुत उडुराज ॥३१॥ अश्वमेध यज्ञ विचार । (छंद चौवोला) कियो विचार भूप मन में अस केहि विधि सुत हम पाचँ । करिकै वाजिमेध मख उत्तम हरि सुत हेतु मनावें ।। देहि ईस सुत वंश-विधायक उरिन पितर-ऋन होई । यहि विधि करि मतिमान ठीक मति मत्रिन मंत्र समोई ॥३२॥ और सबै सुख, नहिं संतति सुख, सुत लालसा हमारे । तेहि हित अश्वमेध मख करिवो हम मन माह विचारे॥ शास्त्रीति ते सवै विचारहु जेहि विधि सुत हम पामैं । सुनि नृप वचन वशिष्ठादिक मुनि बोले वचन ललामैं ॥३३॥ भली विचार कियो नरनायक करहु यज्ञ संभारा । तजह तुरंग संग सुभटन के दै दुत विजय नगारा। यज्ञभूमि सरजू उत्तर दिसि कीजै विमल विधाना । पैही नरपति पुत्र सर्वथा जो तुम्हरे मन माना ॥ ३४॥ सुनिक बचन वशिष्ठादिक के सजल नैन महराजा। कह्यो हरषि सचिवन अव कीजै सकल यज्ञ को काजा ॥ गुरु वसिष्ठ आदिक मुनिजन के विमल वचन अनुसारा। तजहुँ तुरंग संग सुभटन के दै द्रुत विजय नगारा ॥३५॥