पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२२७

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रामस्वयंबर। गौरतु सय महर्षि पगु धारे । भूपति करि प्रनाम सत्कारे । भरी सभा दशरथ को भारी । बैठायो भूपति सत्कारी ॥ जन जगतीपति अवसर जानी ।भन्यो वारिधर धुनि एव बानी । सुनहु नृपति सब सचिव प्रधाना होत मोरयब अस अनुमाना। लाग्यो आय चौथपन मोग। जीवन रयो बात्रि अब थोरा। रामहि सॉपि राज्य कर भाराभि सुकुद चरन निसियारा॥ (दोहा) भूप पौरजन, सचिवगन, सज्जन लेहु बिचारि । ____ उचित होइ तौ आसुही संमत कर संभारि ॥ ३२२ ॥ (चौपाई) जब दशरथ असदचन वखाना | भयो लवन सुनि मोद महाना॥ उठे वालि सय एकहि बारा । जनु गजे उघन गगन अपारा ॥ भूप करहु जुवराज राम को। नहि विचार अब और काम को॥ सुनत सबन के बचन विलासा । दशरथ बहुरि वचन परकासा राम होहिं जुबराज प्रवीने । सुनतहि सब लम्मत करि दीने ॥ तम धशिष्ठ अरु सचिव सुमंता । सबकी रुख गुनि कहे तुरंता भयो न है नहि होवनहारा । अवधनाथ जस कुवर तुम्हारा॥ राम सत्य सतपुरुष-सिरोमनि । लत्यवचन पालजधानी धनि त्रिभुवन राज्य करन के लायक माहि मंडल नफपत रघुनायक। ताते अप नहिं करहु क्लिंवा । राउर लाल भुवन-अवलंबा ॥ यौवराज्य कीजै अभिपेका । होइ विश्व उपकार अनेका॥ सुनि वशिष्ठ के बचन सुहाये। एकाहि वार सभासद गाये ॥