२१० रामस्वयंवर । सुहृद सचिव संमत विचारिमन गुरु को बचन सुनायो।। जो आचारज साखन दीजै तो अस कारज होई। करहिं राम से विनय प्रजालब निज निज कारज जाई ॥१२॥ कह्यो वशिष्ठ राम यहि लायक भूपति गली विचारी। पुरजन काज कहि रघुनायकतुव सासन सिर धारी॥ सुहृद सचिव सजन सराहि सब निज निज संमत कोने । हुलसि राजमनिबोलि राम कह सौपिकाज,सवदीने ॥३१३॥ प्रभु सासन सिर धारि रघूत्तम करन काज सवलागे। प्रतिदिन पितु से पूछि पूछि सब जथा जोग अनुरागे ॥ साँझ समय पितु निकट आय पुनि अपने महल लिधारें। लपन-सखन-जुत लखत नृत्य नित सुनतगान सुखसार॥३१४॥ राम के यौवराज्य का विचार । (चौपाई) मातु सदन सुशवध विहाई ।जवते गए भरत दो भाई ॥ तवते भरत-लपन जननी को। सेचन करहिं राम अति नीको । राम सनेह सील सेवकाई । लखि निज सुत सुधि दई भुलाई ॥ कौसल्या ते दून स्नेहू । करत कैकयी विनु संह। देखि राम गुन कोशलराई । नित नित आनंद लहत महाई ॥ किया विचार मनहिं महराजा।हाई अवसि रघुपति जुवराजा राजकाज सौंपहुँ सब शमै । मैं अब जाउँ विपिन तप कामै तव दशरथ सव सचिव वुलाये। प्रथम हिगुरु वशिष्ट तह माये।
पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२२६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।