रामस्वयंवर। २०४ कहो बचन मातुल के संग में जैहौं मासु भनंदे ।। तिहि औसर उठि शत्रुशाल जुग जोरि पानि अल गाया। मोहूं को दीजै निदेस पितु तनु तजि रहति न छाया॥३०५।। कझो भूप गवनहुँ तुमहूँ उत करन भरत सेवकाई । रहियो सावधान सब कालहि किहेहु न कछु चपलाई ।। पुनि भुआल मनि बसन विभूषन रथ तुरंग मातंगा। दियो समाजि युधाजित को तह घर आयुध बहुरंगा ॥३०॥ (दोहा) उठि दशरथ मिज स्याल को मिल्यो बारही बार । कीन्हीं विदा निवेस को करि बहु विधि सत्कार ॥ ३०७॥ भरत शत्रुहन उठि तुरत पिता चरन लिर नाय । पुनि रघुकुलमनि के चरन बंद्यो सील छुभाय ॥ ३०८ ॥ जाय भवन निज जननि को कह्यो प्रसंग वुझाय। माँगि विदा पुनि कौशला भवन आलुही आय ॥ ३० ॥ काहि प्रसंग सिर नायकै लषनमातु कहँ वैदि । काश्मीर को बलत मे सानुज परम अनंदि ॥ ३१०॥ (छंद चौवोला) जवते गये भरत मातुल कुल तवते लछिमन रामा। करहिं रोज पितु की लेवकाई पूरहि जन मन कामा॥ एक समय सचलचिव महाजन सुहृद सहित सरदारा। बैठ्यो दशरथ भूप सभा महँ गुरु को गातु हकारा ॥३१॥ गये वंशिष्ठ राजमंदिर मह नृप नति करि बैठायो।
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