१६४ रामस्वयंवर। विप्र बदत बहु बढ़ि बढ़िवाता। मुनि सुनि उपजत क्रोध अधाता देहु दिखाय बनाय तमाला। पूरहुँ सकल युद्ध की आसा॥ (दोहा) लपनहि कोपित जानिकै मंद मंद कह राम । विप्न वचन सहिवो सदा यही सयाना काम २०६।। परशुराम तजि राम को चित लपन की ओर । चोले वैन सरोप अति गहे कुटार बटोर ॥२०७॥ (कवित्त) परशुराम- देखिये वशिष्ठ यह राज को कुमार खोटो मेरी ओर देखत अनैसे नैन करि करि । कवह सुनी न प्रभुताई मेरि कानन में शठ लरिलाई बस रीसै धनु धरि धरि माहिं उप- जावै कोप लाप निज चाहै होन, वेगही वुझावो रघुराज छोह भरि भरि । ना तो कहीं आज मैं समाज में पुकारि मेरे कोप की कृसानु हैहै कीटही सो जरि जरि ॥ २०८ ।। लक्ष्मण- जैसा कोप कीजै तैसो देोप नहि मेरे जाति हानि लाभ का भयो पुरान धनु तारे ते । छुवतही हट्यो नहिं जोर परयों रामै नेकु, अवै ना नसाय कछु जुरि जाई जारते ॥ केते तोरि डारें धनु खेलत सिकारन में, कबहूँ ना कीन ऐसा कोप और छोरे ते । रघुराम राजन की रीति नहि जानो वित्र करो कहुँ जाय तप जानो कहे थारे ते ॥ २० ॥
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रामस्वयंवर।