रामस्वयंबर । (सोरठा) सुनि भृगुपति के वैन सनही मन मुसक्यात मुनि । अवै ज्ञान यहि है न, वृथा वकत वरपर बचन ॥ १६६ ॥ कया बचन मुसक्याइ, भयो जदपि अपराध घड़ । छमा करहु भृगुराइ, छमा विप्र को चाहिए ॥ २० ॥ (कवित्त) नीलमनि भंग सों निहारि रनधीर राम, कायो भृगुगर रघुराज तू कहावै है । तेही कोशलेश को सपूत पूर जेठो अहे, तेही जग माहि मेरो नाम को धरावै है ॥ तेही तारयो शंभुधनु साँची फहै सौंह कैके, नाता जमलोक को तुरंत तैही जावै है । धरि दे धनुप छली छोड़, छोड़, छत्री-धर्म, तेरे अपराध रघुवंस मिटो जावै है ॥ २०१॥ (दोहा) नुनि भृगुपति के चैन अस दशरथ कॅप्यो डराइ। जारि पानि पीरो वदन अति दीनता दिखाइ ॥ २०२ ॥ (चौपाई) तस तस अमरप बढ़त राम के । गुनत भमित अपराधराम के॥ भूप दीनता, भृगुपति क्रोधू । सह्यो न लपन विचारि विरोधू ॥ फरफि उठे भुजदण्ड प्रचंडा । कह्यो भरत से बचन उदंडा।। का कहिये पाछु कहो न आई । राम पितहि कह रहे डराई॥
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रामस्वयंवर।