रामस्वयंचर। १७७ दै आसन पूछी कुसलाई । गाधिसुवन बोल्यो सुख पाई। चलन चह। अब हिमगिरि काही । इहाँ रहे सुधरत तप नाहीं।। । जब करिहासुमिरन नृप मारा। तब देखिहौ मोहि तिहि ठोरा।। (दोहा) नरपति तुम्हरे नेह बस, बनत न हमसे जात । है न सकत कछु भजन तप, रहत बनत नहिं तात ||३|| (चौपाई) सुनि कौशिक के वचन सुहाये। अवधनरेश अतिहि बिलखाये ॥ रामहि बंधुन सहित बुलाई। दोन्ही मुनि की खिदा सुनाई। मुनि कहै करि प्रणाम रहु वारा जोरि जला कर वचन उचारा॥ सवै न जा अवध पगुधारो।पुनि गमनद मग जहाँ तुम्हारो॥ मनि कह अय कीजै सो काजा। जिहि हित प्रगट भयो रघुराजा अस कहि बार बार मिलिरामै । धाशिप दियो पूरि मनका ॥ गयो विदेह गेह मुनिराई । सुनि मिथिलेश गह्यो पद माई ॥ मांगी बिदा मुनीस महीपै । जब सुमिरव तय रहक समीपै। कौशिक गयो बहुरि रनिवासै । जोहि जानकी पाय हुलाल। माँगि बिदा मुनि दई असीहो ।पुनि आयोजह जनक महीसा॥ लै इकांत मह मुनि अस भारयो । भूप वरात बहुत दिन राख्यो। बिदा करहु अब कोशलनाथै । दूलह दुलहिन करियज साथै ॥ मुनिनवाशिष वचन उचारयो।जनक गयगजल चरनपलायो . चल्यो सुनील नयन भरि नीरा । गयो महीपमहल धरि धीरा॥
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