पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/१९२

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१७६ रामस्वयंपर। मंडप तर दूलह सब आये । मिली सिद्धि सखि मंडल भाये - गोरि गणप पूजन करवाये। पुनि चारिहु वर वधुन वुलाये। पुनि बैठाये आसन माहीं । सविध कराये होम तहाँहीं । सफल चार चौथी फर कीन्हें । अतःपुरवासिन सुख दीन्हें ॥ लै रानी सव कुँवरन काहीं । असन करायो भौनहिं माहीं॥ मांगि विदा प्रभु सिबिर सिधारे । सखन बंधुजुत राम नहाये॥ घदलि बसन पितु सभा सिधारे। सुखी भये नृप कुँबर निहारे।। (दोहा) रघुपति व्याह उछाह में, बीते बहु दिन रैन । जानि परे छन एक सम, पाय महा चित चैन ||५|| (चौपाई) एक समै वशिष्ठ निज घामा । वैठे रहे सुमिरि हिय रामा ॥ विश्वामित्र तहाँ चलि आये । उठि वशिष्ठ आसन बैठाये ॥ गाधिसुवन कह मंजुल दानी । सुनहु ब्रह्मनंदन मतिवानी ।। 'बहुत दिवस मिथिला मह वीते। उभैराज नहिं सुख सौ रीते॥ अब हम गमन सैल हिमालै । कारज सकल सिद्धि यहि फाले। सुनत गाधिसुत की घर वानी । बोले ब्रह्मतनय विज्ञानी । सत्य कहो कौशिक अवदाता । चलद अवध अब उचित पराता॥ लोसल्यादिक जे महरानी । लिखहिं पत्रिका मुहिं हुलसानी॥ ताते शतानंद बुलवाई । हम सब जतन करय मुनिराई। उठि बशिष्ठ कह मिलि मुनिराई। कौशिक वार चार सिर नाई ।। माँगि विदा दशरथ पहँ आयो । भूपति चलि आगे लिर नायो।