पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/१९१

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रामस्वयंबर। . मंद मंद भोजन करत सुनि सुनि गारी राय। ' . कुँवर उतर कछु देत नहि. दोउ नृप निकट लजाय ॥७२॥ (चौपाई) यहि विधि करि भोजन अवधेशाकरित्रमन तज्यो तिहि देशा अचवन किया भूप सिरताजा । तहँ यो मिथिलामहराजा॥ निज कर पीरी नृपहि वायो । लक्ष्मीनिधि रामहि पुनि ल्यायो 'मांगी बिदा जान जनवासे । कह्यो बचन तव जनक हुलासे ।। किहि विधि कहाँ जान अवधेशा । जान कहत जिय होत कलेशा॥ कोशलनायक बंदि विदेह । गमन्यो चरनत जनकलनेहू ॥ बाजु चतुर्थी कर्म विधाना । ताकर संच साज सामाना॥ शतानंद कह जनक हुलाले ! वर मानन पठसे जनवासे ॥ गौतमसुन चलि अवधसुरालै । कयो चतुर्थी कर्महि हाले। राउ रह्यो मम गुरु पहँ जाह । तिन जुत कुँवरन कह ले जाहा। गौतमसुत वशिष्ट पह गयऊ । विश्वामिनहि भानत भयका। समाचार सव दियो सुनाई । लम्मत कोन्यो दोउ मुनिराई ।। (दोहा) तह वशिष्ठ चारिहु कुँवर, लीन्हे मासु बुलाय । रत्नजाल की पालकी, दूलह लिये चढ़ाय 180 (चौपाई) पाधिसुवन अरु आपहु आसू । चढ़े एक रथ सहित हुलासू ।। अगनित परिकर विविध नकोवा । चले संग बोलत जय जीवा यहि बिधि चारिहु कुँवर सुहाये । जनक भूप रनिवालहिं आये