रामस्वयंघर। (दोहा) राम दरस हित स्वर्ग तजि, चारन सिध गंधर्व । विद्याधर अरु अप्सरा, आये मिथिला सर्व ॥३॥ (चौपाई) उनक गुनीजन कला निहारी । तजि गुन गर्व रहे हियहारी। अवधनरेसहु करी प्रसंसा दियो भूरिधन नप अवतंसा। लिहि अवसर आयो कुशकेतू । उठी सभा जुग भूप समेतू ।। करि वंदन भूपति सिरताजे । कयो वचन पुनि भोजन काजै॥ रघुकुलतिलक विनय सुनि लीजै भोजन हेत गवन-अब कोज। सुनि कुशकेनु वचन अवधेशा | वल्पोकु वर-जुन लै मिथिलेशा चले संग सर रघुकुलवारे । भोजन करन भवन यवनारे । भोजन मंदिर गये लिलाई । जयाजोग सव फहँ वैठाई। पत्स्यो ओदन विविध प्रकारा। मोती भात सुनार उतारा॥ बने विविध विधि साक विधाना। विविधरंग नहिं जाय बखाना विविध भांति की बनी मिठाई । सरस सवाद सुधा लमताई।। जिहि विधि परसे दशरथ काहीं। तिहिते न्यून बरातिन नाहीं॥ (दोहा) जैसी विधि दशरथ करी तैसी करी विदेह । पुनि लागे भोजन करन, दोउ नप सने सनेह ॥३०॥ तह गारी गानन लगी, सिपिलापुर की नारि । साजन विविध वनायक, सातहु सुरन सुधारिं ॥७१।।
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