१२१ रामस्वयंबर। नृपं कह भली कही रघुनाथा । खैवन चाप लगावहिं हाथा ॥ बोले विश्वामित्र पुकारी । गहहु राम धनु पटल उघारी। (दोहा) संमत सहित विदेह को सुनि गुरु-आयतु राम । गुरु समेत मुनिजनन को किय करकमल प्रणाम ॥७०४॥ (कवित्त) सहज सुभाय कर कमठ लगाय मनजूषा को उघारि दोन्ह्यो झमकि झड़ाकदै । ताते ऐंचि संभु को सरासन प्रयास नहिं साजत प्रत्यंचा कोन कड़के कड़ाक दै॥ रघुराज कौतुक सो ऐंपो चाप कानन ली चंचलाती चैधि परी चखन चड़ाक दै। अवधकिसोर बाजार को न थोरो सद्यो एटिगो त्रिनेत्र. धनु तड़कि तड़ाक दै ॥७०५॥ (दोहा ) टूटत हरकोदंड के भयो भयावन सोर। मनहुँ सहस पत्रिपात यक बार भयो तिहि ठोर ॥७०६॥ ( कवित्त ) चैकि उठ्यो चारिमुख चितवत चारो ओर चंद्रचूड़ चेत्यो चित चखन उचायकै। गगन ते गिरे गोरवान जे विमानन में छोनिक को छुवत अस बचै अकुलायकै ॥ रंगभूमि भूपति. समाज नरनारि जेते एकै वार गिरिगे प्रचंड सोर पायकै। रघुराज लषन विदेह मुनि ठाढ़े रहे राम जब तूरयो संभुचार को चढ़ायकै ॥७०७॥
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