पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/१३२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रामस्वयंबर। (सवैया) पूरब जो जनत्यों जगती में नहीं है कहूं बर धौर प्रतापी। छत्रिन की करिछयभृगुनाथ नहीं पुनि छत्रिन को छिति थापी । श्रीरघुराज सुना सब गज प्रनै करतो नहिं सत्य अलापी। क्यों धातोउपहास सिकार पूरन पुन्य कहौंत्यों न पापी 148 लक्ष्मण-कोप (दोहा) ते विदेह के बचन सर भू परि रहे लजाय । गये न सहि यफ लपन सों भभक उठ्यो फनिराय॥६७६ ॥ अरुन नयन फरकत अधर लपन लखत भुजदंड । श्वास लेत भुजगेस सम अमरप उठ्यो उदंड ॥ ६७७ ॥ तह विदेह के वचन सर भये लषन हिय पार । जारी पानि पंकज प्रभुहि कीन्ह्यो विनय उदार ॥ ६७८ ॥ सुनहु दिवाकरकुलकमल हौं तिहरो लघु भाय । जन्म पाय रघुवंस महँ अस कसकै सहि जाय ॥ ६७६ ॥ . (छंद भूलना). कहत नहिं उचित मिथिलेसहिदेल मह आपको अक्ष परतक्षयेखें। बदतमुख धीर ते विगत भयवसुमतीरतीभर सजत नहिं भूपतेखें। सुनौं रघुराज हौंरावरो दास नहि बावरो वेप करि कहौं रेखें । आसुआयनु करहु मिटै उरदुसह दुख लखें कौतुक नृपति नारिवेखें।