, रामस्वयंबर। त्यों त्यों सवै मिथिलापुर के जन राजन को हसे हेरि ठठाई । श्रीरघुराज मनावें विरवि दलैंसिव के धनु को रघुराई ॥६७०।। (दोहा) धनु तारन जोरन सुगुन रह्यो एकही ओर। मंजूपा ते बँचियो कठिन परी यहि ठार ॥ ६७१ ॥ . (सोरठा) दोर बंदी तिहि काल बोले वचन पुकारिकै । सुनहु विदेह भुवाल राजसमाजहि लाज भय ॥ ६७२ ।। . (छप्पय ) मन राउर सब नृपन सुनाये भुजा पसारी। तमकि तकि बहु भूप आय कीन्हे बल भारी॥ सके न कोई मंजूषा की पटल उधारी। बँचब ऐचव साजि प्रत्यंचा काह विचारी ॥ . अब जस अनुसासन रावरो होई यहि छन तस करें। धौं धरा रहे दुर्धर्ष धनु धौं लै तिहि धामहिं धरै ॥ ६७३ ॥ सुमति विमति के बंचन सुनत मिथिलेस रिसाई । सिंहासन पर खड़ा भयो नयनन अरुनाई ॥ बोल्यो बचन कठोर लार करि भूरि भयावने । छत्रवंस छिति छाम जानि मन बहुरि बढ़ावन ॥ 'धरवाय देहु धनु धाम में धाम धाम धुनि आम करि। . अब उर्वीतल उर्वीस कोउ गर्वी हाई न गर्व भरि ।। ६७४॥'
पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/१३१
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