पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/१२३

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रामस्वयंवर।

रामस्वयंबर । सीतहि देखि जनक-महरानी। बोली सबै सखिन सों बानी। बडि बिलंवकर कारन कहासिय-संगसबसयान सखि अहह॥ देखत रही सिया फुलवाई । फेरि सरोवर 'माह नहाई ॥ पूजी गौर वेद-विधि करिक। आवत जननि बेर भइ धरिकै । रानी कह्यो 'जाउ सँग माहीं। करवाओ भोजन सिय काहीं॥ धनुषयज्ञ (दोहा) राम लपन कौशिक सहित, किया रैन सुखसयन । मनहि भय न उर चयन भरि, मीलित मंजुल नयन ६११॥ चारि दंड जब रहि गई, रजनी अति अभिराम । - ब्रह्म मुहरत आइगौ, जगे लषन जुत राम ॥६१२॥ [चौपाई] पहिरि यसन आये निज बासा धारयो बिमल विभूपन बासा॥ कहो लषन से प्रभु मुसुकाई । आजु स्वयंबर लखय सिधाई। सानुकूल जापर विधि होई । रंगभूमि पैहे जस साई।। अस कहि गवने गुरू समीपा । पुरुष सिंह सुंदर कुलदीपा में उतै उठे मिथिलेस प्रभाता । कियो बिचार बुद्धि अघदाता॥ आजु सुखद सुभोगसुहावन । सतानंद कह चहिय बुलावन। सतानंद कह पठयो धावन । ल्यायो तुरत पुरोहित पावन । करि प्रनाम भोले मिथिलेसू । बोलि पठावहु सकल नरेसू ॥ रंगभूमि, महँ सफल प्रकारा। करहुं स्वयंवर कर संभारा॥