रामस्वयंदर। . (दोहा) पुनि आई मन महं सुरति, बडि बिलंब हम कीन। .. बीति गये जुग जाम इत, निरखत पुर लवलीन ॥५१८० सभै सप्रेम विनीत अति, सकुच सहित दोउ भाइ । गुरुपद पंकज सीस धरि, बैठे आयसु पाय ॥११॥ संध्या समय बिचारि मुनि, आयसु दीन उदार।' नित्यनेम संध्या करहु, श्रीअवधेश कुमार ॥५२०॥ करि संध्यावंदन विमल, सुनि समोप मुनि आय। राम लपन बैठे मुदित, गुरुपद सीस नधाय ॥५२॥ ' (सोरठा) . मुनिवर आलस जानि, कहो राम अभिराम सों। सयन करहु सुखखानि, हमहुँ सयन फरिहैं ललां ॥५२२।। जनक-वाटिका गमन . (छंद चौधोला) निसा सिरानी जग सुखदानी यहि बिधि भयो प्रमाता। चहर पहर चहुँकित सुनि चायन जग्यों राम लघु भ्राता ॥ लपन कमल कर परसि पाय पद कछु कौशिक ते आगे ।। जगे जगतपति सुमिरि गुरूपद गुरुहि जगावन लागे ॥५२३॥ जगे मुनीस मनहिं मन सुमिरत राम वरन-जलजाता । नयनानि खोलि लखे रघुपति-मुख 'यह मुद मन न समाता ॥ प्रातकर्म करि धर्मधुरंधर बसुंधराधिप-वार। ,
पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/१०९
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।