पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/१०५

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रामस्वयंबर। (सवैया) बिज्जु छटा ज्यों घटा धन में तिमि ऊंची अटान चढ़ीं पुरनारी। धाम को काम बिसारि बधू जुग बंधु बिलोकहिं होहिं सुखारी ॥ श्रीरघुराज के आनन अंबुज भे अलि अंबक आसु निहारी । पार्वै जथा सुरपादप को यक यारही भाग ते भूखे भिखारी॥४८॥ झाँकै झुको जुवती ते झरोखन झुडनि ते झरफ कर टारी । देखि मनोहर सुंदर रूप अचंचल कीन्हें द्वगं- चल प्यारी ॥ श्रीरघुराज सखीन समाज में लाज को काज पर न निहारी । आपुस में वर वैन भने सखि आजु लही फल आँखि हमारी ॥४९॥ दानव मानव देव अदेवहु देखे न काहिं विदेहपुरी मैं । पूरब गाथ पुरानन में सुनि ताते कहाँ सखि बात फुरी मैं ॥ श्रीरघुराज स्वयंवर के दिन ऐहैं नरेस समाज जुरी मैं। तादिन देखि परी सबकी छवि कौन मिली इनकी मधुरी मैं॥५००॥कौनौ सखो पुनि बोलि विनोदित सत्यं सखी है विचार हमारो। संभु विलोकी इन्हें कबहू समता करतो कछु देखिकै मारो॥ सोई बिचारि बड़ो अपराध प्रकोपिकै तीसर नयन उधारो। श्रीरघुराज मनोज की मौज उतारि भले दईमारे को जारो ॥५०१॥ (दोहा) विषकाज करि बंधु दोउ, आये नगर विदेह । । यक विदेह यहि पुर रह्यो, इन किय अनित विदेह ॥५०२॥