रामस्वयंवर। श्रीरघुराज बिसोक भये तहँ के मुनि मानव पापिनि मारे ॥४८॥ आयकै आपने आश्रम में किया यज्ञ अरंभ प्रमोद प्रफुल्ला। आये निसाचर साहनी साजि मरीच सुबाहु सुने मखमुल्ला॥ श्रीन्घुराज सुनो मिथिलेल दोऊ दसस्यंदन के रणदुल्ला। मागि के वान दिशानन भेजे विलाय गये जिमि बारि के वुल्ला। रावरी राजसुना को स्वयंवर त्यो धनुपज्ञ सुनै सव कोई। आवन लागे इतै हमहूं तब राजकुमार कहे मुद माई ॥ श्रीरघुराज हसू चलिहैं सुख पैहैं.विदेह की जागहि जाई ।... ताते लेवाय चले संग में गुनिकै छन छोड़े महादुख होई॥४८२॥ (दोहा) • अब आये मिथिलानगर. सयुत राजकुमार । भयो प्रसन्न हमार मन, लहि तुम्हार सत्कार ॥४८३॥ जोरि पानि पंकज हरषि. कह्यो बहुरि मिथिलेश । धन्य धन्य प्रभु गाधिसुत, लत्य-धर्म-तप-बेल ॥४८॥ (छंद चौवाला) मोहिं धन्य कीन्यो धरनी महं धर्मधुरंधर नाथा। धनुपयज्ञ देखन, मिसि आये सहित लपन रघुनाथा ॥ . हैं अनंत बल, हैं अनंत तप, हैं अनंत गुन करे। .. . सुनत राबरी चरित ताप नहिं होत श्रवन सुख पूरे ॥४८५|| वीति गये जुग जाम दिवस के छन सम परयो न जानी। ढरे भानु पश्चिम आला काहं सुनहु विनय विज्ञानी॥ पाय रजायसु जाउँ भवन कहं ऐहैं। बहुरि प्रभाता। ,
पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/१०२
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।