पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/९५

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( ४५ ) तौ हमको गुरुदोस नहीं अब एक रती। जो अपनी जननी तुमही सुख पाइ हती ॥२०७॥ [विजय छद] परशुराम-लक्ष्मण के पुरिखान कियो र पुरुसारथ सो न कह्यौ परई । बेस बनाइ कियौ बनितान को देखत केसव ह्यौ हरई। यो कूर कुठार निहारि तजै फल ताको यहै जो हियो जरई। आजु तै केवल तोको महाधिक, छत्रिन पै जो दया करई ॥२०८॥ [गीतिका छद] तब एकविसति बेर मै बिन छत्र की पृथिवी रची।- बहु कुड सोनित सौं भरे पितु तर्पनादि क्रिया सची ॥ उबरे जे छत्रिय छुद्र भूतल सोधि सोधि सँहारिहौं । अब बाल वृद्ध न ज्वान छाँडहुँ धर्म निर्दय पारिहौं ।।२०९।। राम-दो०] भृगुकुल-कमल-दिनेस सुनि, ज्योति सकल ससार । ____ क्यो चलिहै इन सिसुन पै, डारत हो जसभार ॥२१॥ पूरशुराम-[सो०] राम सुबधु सँभारि, छोडत हौं सर प्रानहर । सो देहु हथ्यारन डारि हाथ समेतिन वेगि दै। ॥२११॥ (१) वेगि दै= शीघ्रता से।