पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/६९

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( १९ ) बाढि गयो बकवाद वृथा, यह भूलि, न भाट सुनावहि गारी । , चाप चढाय हौं कीरति कौं, यह राज बरै* तेरी राजकुमारी | ॥८॥ खडित मान भयो सबको नृपमडल हारि रह्यो जगती को। ७व्याकुल बाहु, निराकुल बुद्धि, थक्यो बल विक्रम लकपती को।' कोटि उपाय किये कहि केशव क्योहुँ न छाडत भूमि रती को भूरि विभूति प्रभाव सुभावहि ज्यो न चलै चित योग-यती को ॥५॥ दो०] मेरे गुरु को धनुष यह, सीता मेरी माय । ___ दुहूँ भाँति असमजसै, बाण चले सुख पाय ॥८६॥ रावण- [तोटक] . अब सीय लिये विन हौं न टरौं। कहुँ जाहुँ न तो लगि नेम धरौं । 'जब लौ न सुनौं अपने जन को। अति आरत शब्द 'हते तन को॥८॥ काहु कहूँ सर आसुर मारयो । भारत शब्द अकास पुकारया।' रावण के वह कान परयो जब । छोडि स्वयवर जात भयो तब ॥८८॥ ऋषिराज सुनी यह बात नहीं । सुख पाइ चले मिथिलाहि तहीं। बन राम सिला दरसी जवहीं । तिय सुदर रूप भई तबहीं ॥८९॥ रामचंद्र का.जनकपुर में आगमन । [दो०] काहू को न भयो कहूँ, ऐसो सगुन, न होत । _____पुर पैठत श्रीराम के, भयो मित्र उद्दोत ॥९॥ सूर्योदय-वर्णन राम- [चैपाई] कछु राजत सूरज ारुन खरे । जनु लक्ष्मण के अनुराग भरे । । चितवत चित्त कुमुदिनी त्रसै । चोर, चकोर चिता सो लसै ॥११॥

  • कहीं कहीं “करै।' पाठ भी मिलता है।