पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/६३

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2 ( १३ ) [दो०] जान्यो विश्वामित्र के, कोप बढयो उर आइ । राजा दशरथ सों कह्यो, वचन वशिष्ठ बनाइ ॥५१॥ [पट्पद ] । वशिष्ठ-इनहीं के तपतेज यहा की रक्षा करिहै । इनहीं के तपतेज सकल राक्षस बल हरिहै । इनहीं के तपतेज तेज बढिहै तन तूरन । इनहीं के तपतेज होहिंगे मगल पूरन । . . कहि केशव जैयुत अाइहै इनहीं के तपतेज घर । नृप बेगि राम लक्ष्मण दोऊ सौंपौ विश्वामित्र कर ॥५२॥ [दो०] नृप पै वचन वसिष्ठ को, कैसे मेट्यो जाइ । सौप्यो विश्वामित्र कर, रामचद्र अकुलाइ ॥५३॥ [पकजवाटिका छद] राम चलत। नृप के युग लोचन । वारिभरितः भै: ... वारिदरोचन । । । पायन परि ऋपि के सजि मौनहिं । केशव उठि गै भीतर भौनहिं ।।५४॥ .. चामर छद] वेद मत्र तत्र शोधि, अस्त्र शस्त्र दै भले । रामचद्र लक्ष्मणै सो विप्र छिप लै चले। लोभ--छोभ मोह गर्व काम कामना हुयी। नींद, भूख, प्यास, त्रास, वासना सबै गयी ॥५५।। 4131