पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/५९

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

[मरहट्टा छद ] and अति उच्च अगारनि बनी पगारनि. जनु चिंतामणि नारि । बहु सत मख धूमनि धूपित अगनि हरि की सी अनुहारि ।।। चित्री बहु. चित्रनि परम विचित्रनि केशवदास निहारि। जनु विश्वरूप को अमल आरसी रची विरचि विचारि ॥३०॥ सो०] जग यशवत विशाल, राजा दशरथ की पुरी। चद्र सहित सब काल, भालथली जनु ईश की ॥३१॥ का ५ [कु डलिया ] मडित अति सिगरी पुरी, मनहु गिरा ,गति गूढ । सिंहन युत जनु चडिका, मोहति मूढ अमूढ । मोहति मूढ अमुढ, देव सँगऽदिति सी सोहै। सब शृगार सदेह, मनो रति मन्मथ मोहे ।। सब शृगार सदेह सकल सुख सुखमा मड़ित। 'मनो शची विधि रची, विविध बिधि बरणत पडित ॥३२॥ काव्य छद] मूलन ही की जहाँ अधोगति केशव गाइय । होम-हुताशन-धूम नगर एकै मलिनाइय ।। । दुर्गति दुर्गन ही जो, कुटिलगति सरितन ही मे। श्रीफल को अभिलाष, प्रगट कविकुल के जी मे ॥३३॥ दो०] अति चचल जहँ चलदलै, बिधवा बनी न नारि ।। ___ मन मोह्यो ऋषिराज को, अद्भत नगर निहारि ॥३४॥ (१) नारि = समूह ।