तरह के शब्दों का तो कुछ कहना ही नहीं है। कहीं कहीं तो , उनका बुदेलखंडीपन उनकी भाषा को प्राकृत के जैसा रूप दे देता । है। बियो (दूसरा) आदि प्राकृत के शब्द भी उनमे मिलते हैं। निरय, यत्र, यदा आदि हिंदी मे अप्रयुक्त संस्कृत शब्दों का प्रयोग भी उनकी भाषा की रुखाई को बढ़ाने में ही मदद करता है। निजेच्छया, स्वलीलया, लीलयैव, हरिणाधिष्ठित के सदृश संस्कृतविभक्तयत तथा समस्त पद भी यही काम करते हैं। उनकी भाषा मधुर भावों की अपेक्षा तीक्ष्ण भावों को प्रकट करने के लिये अधिक उपयुक्त है। इसी से उनकी वीर-दर्प-पूर्ण उक्तियाँ , बहुत जंचती हैं। व्याकरण की भी उन्होंने सर्वत्र रक्षा नहीं की है। 'बाण हमारेन के तन त्राण' में 'बाण' के वचन-चिह्न 'और विभक्ति 'हमारे' पर लगकर दुहरे बहुवचन और षष्ठी का दृश्य दिखा रहे हैं। कहीं कहीं पर वाक्य-रचना बिलकुल अव्यवस्थित है। 'राज देहु जो वाकी तिया को' ( प्रथम संस्क- रण ९५ पृष्ठ) में अर्थ बिलकुल बदल गया है। कहना चाहते थे, 'सुग्रीव को अगर उसका राज्य और उसकी स्त्री दे दो' पर अर्थ निकलता है कि 'उसकी स्त्री को अगर राज्य दे दो' परतु शायद यह केशव की गलती न हो, 'जो' के स्थान । पर 'दै पाठ भी संभव है जिससे यह दोष नहीं रहने पाता। इस सस्करण में यही पाठ रखा गया है। कहीं कहीं पर कहने का ढग बिलकुल बेढंगा है। विवाहोपरात शिष्टाचार में जनक अपने समधी से कहते हैं- 'दुख देख्यो ज्यों काल्हि
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