आदि हिंदी के अपने छंद हैं। इनके भेदोपभेदों के दर्शन कराने के लिये केशव का आभार मानना चाहिए। यदि वे इन्हीं का अथवा अन्य छदों का भी सही, एक एक करके कुछ दूर तक क्रम रखते तो प्रबंध की दृष्टि से भी बड़ा अच्छा होता। परंतु केशव को इस बात का ध्यान ही न था । - काव्य की सैदिर्य-वृद्धि में भाषा का भी विशेष हाथ रहता है। काव्य की और साधारण गद्य की भाषा के मूल तत्त्वों मे चाहे कुछ अंतर न हो, पर दोनों एक भापा होने पर भी एक नहीं होती। काव्य की परंपरा भाषा को एक विशेष प्रकार की मिठास दे देती है जो साधारण भाषा मे नहीं मिलती। इसी मिठास के अभाव से लोग बहुत दिन तक यह मानने को तैयार नहीं थे कि खड़ी बोली में भी कविता हो सकती है। ब्रजभाषा, जो केशव के समय मे काव्य की सामान्य भाषा थी और जिसमें स्वय केशव ने काव्य किया, काव्य के लिये विशेष रूप से ढल चुकी थी। परतु केशव ने इस ढले हुए रूप को नहीं लिया। उनकी ब्रजभाषा बहुत कुछ ऊबड़-खाबड है। उसमे स्थान-स्थान पर बुदेलखडी का पुट मिला हुआ है। यद्यपि मरूकर (मुश्किल से ), उपदि (बडों की इच्छा के विरुद्ध स्वच्छंद भाव से ), । उरगना ( स्वीकार करना), गलसुई (गाल के नीचे रखने की तकिया ) आदि प्रांतीय शब्द कर्ण-कटु नहीं हैं फिर भी भाव- ग्रहण मे बाधा उपस्थित करते हैं। गेडुआ ( तकिया) की
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