( २४ ) त्याग, वन मे पथिक राम, चित्रकूट में भरत-मिलन, लक्ष्मण- मूर्छा पर राम-विलाप आदि वर्णनों से तुलना करने पर केशव के ये वर्णन बिलकुल फी के मालूम पड़ते हैं। हॉ, सीताहरण पर राम-विलाप सचमुच कुछ अच्छा है। निरीक्षण के इसी अभाव के कारण कभी कभी केशव को परिस्थिति का विचार भी नहीं रह जाता है। राम जब वन जाने के लिये कौशल्या से बिदा माँगते हैं, तो कौशल्या भी साथ आने को कहती हैं। राम इस पर उनसे कहते हैं कि अभी तो राजा जीते हैं, उनकी सेवा कीजिए, वन चलकर क्या करेंगी। और फिर सधवा और विधवा स्त्रियों के कर्तव्य पर एक लबा चौड़ा व्याख्यान* दे डालते हैं, जो पात्र तथा अवसर दोनों के विचार से अनुचित है। राम के मुँह से माता को, वह भी कौशल्या सी सती को, यह पातिव्रत और वैधव्य-धर्म का उप- देश अनुचित जंचता है और अमगल-सूचक होने के कारण अश्लील भी है।
- इस सक्षिप्त संस्करण में राम का यह अप्रासगिक व्याख्यान नहीं
दिया गया है। यहाँ पर बानगी के रूप में दो छद उद्धृत करते हैं- योग, याग, व्रत आदि जो कीजै । न्हान गान-गुन, दान जो दीजै ॥ धर्म कर्म सब निष्फल देवा । हाहिँ एक फल के पति सेवा ॥ वैधव्य धर्म-गान बिन, मान बिन, हास बिन जीवहीं । तप्त नहिं खायें, जल शीत नहि पीवहीं॥ तल तजि, खेल तजि, खाट तजि सेविहीं । शीत जल न्हाइँ, नहिं उष्ण जल जोवहीं ।।