पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२६५

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[ दो० ] कुश को दयी कुशावती,नगरी कोशल देस।
लव को दयी अवतिका,उत्तर उत्तम वेस॥३०४॥
पश्चिम पुष्कर को दयी,पुष्करवति है नाम।
तक्षशिला तक्षहिँ दयी,लयी जीति सग्राम॥३०५॥
अंगद कहँ अगदनगर,दीन्हों पश्चिम ओर।
चद्रकेतु चद्रावती,लीन्हों उत्तर जोर॥३०६॥
मथुरा दयी सुबाहु कौ,पूरन पावनगाथ।
शत्रुधात कौं नृप करयो,देशहि को रघुनाथ॥३०७॥
[ तोटक छंद ]
यहि भाँति सौ रक्षित भूमि भयो। सव पुत्र भतीजन बाँट दयी॥
सव पुत्र महाप्रभु बोलि लिये। बहु भॉतिन के उपदेश दिये॥३०८॥
राम-कथित नीति-शिक्षा
[ चामर छ द ]
बोलिए न झूठ,ईठि' मूढ़ पै न कीजई।
दीजिए जो बात,हाथ भूलिहू न लीजई॥
नेहु तोरिए न देहु दुख मत्रि मित्र को।
यत्र तत्र जाहु पै पत्याहु जै अमित्र को॥३०९॥
[ नाराच छ द ]
जुवा न खेलिए कहूँ,जुबान' वेद रक्षिए।
अमित्रभूमि माहँ जै,अभक्ष भक्ष भक्षिए॥


(१) ईठि = मित्रता। (२) जै = यदि (जदि, जइ)। (३)
जुवान = जीभ।