संग लै चतुरग सैनहि शत्रुहता साथ ।
भाँति भाँतिन मान दै पठये सोश्री रघुनाथ ॥१८०॥
जात है जित वाजि केशव जात हैं तित लोग।
बोलि विप्रन दान दीजत यत्र तत्र सभोग ।।
बेणु बीन मृदंग बाजत दुदुभी बहु भेव ।
भाँति भाँतिन होत मगल देव से नरदेव ॥१८१॥
सेना-वर्णन
[ कमल छंद ]
राघव की चतुरग चमू-चय को गनै केशव राज-समाजनि ?
सूरतुरंगन के उरझै पग तुग पताकन की पट साजनि ।
टूटि परै तिन ते मुकुता धरनी उपमा बरनी कबिराजनि ।
बिंदु किधौं मुखफेनन के,किधौं राजसिरी स्रवै मगललाजनि ॥१८२।
राघव की चतुरंग चमू चपि धूरि उठी जलहू थल छायी।
मानौ प्रताप हुतासन धूम सौं केसवदास अकासन मायी ।
मेटिकै पंच प्रभूत किधौं बिधि रेनुमयी नवरीति चलायी।
दुःख निवेदन को भव-भार को भूमि किधौं सुरलोक सिधायी।।१८।।
[ दडक छंद ]
नाद पूरि धूरि पूरि तूरि वन चूरि गिरि,
शोष शोषि जल भूरि भूरि थल गाथ की।
केसौदास आस पास ठौर ठौर राखि जन,
तिनकी सपति सब आपनेही हाथ की ।
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