है। कवि के हृदय मे क्या भाव जागरित हुआ है, सारा महत्त्व इसी का नहीं। इससे अधिक महत्त्व इस बात का है कि वह पाठक या श्रोता के हृदय में कहाँ तक उस भाव को उद्बुद्ध कर सका है। किसी भाव को संप्रेषण की यह योग्यता ( कम्युनिकेबिलिटी) उपयुक्त परिस्थितियों मे सागो- पांग निर्वाह ही से मिल सकती है। इसी उद्देश्य से आधु- निक पाश्चात्यों ने भी काव्य में स्वाभाविक पूर्ण चित्र (इमेज) की प्रधानता मानी है। काव्य का यही तत्त्व पाठक को व्यक्तिगत विशेषताओं से मुक्त कर कुछ काल के लिये शुद्ध मनुष्यमात्र बना देता है। परतु काव्य में चित्र को स्वाभाविक पूर्णता तब तक नहीं मिल सकती, सांगोपांग परिस्थितियों के बीच भाव का निर्वाह तब तक नहीं हो सकता जब तक अपने वयं विषयों के बाहरी आवरण को भेदकर कवि उनके अंतरतम मे प्रवेश नहीं पा जाता। इस क्रातदर्शिता के तत्त्व को ध्यान में न रखने के कारण ही रस-पद्धति अब उस प्राचीन सजीव वस्तु का प्रस्तरांतरित ( फौस्सिलाइज्ड) रूप मात्र रह गई है जिसमे रूपाकार के सब चिह्न तो विद्यमान हैं, परतु जीवन का लचीलापन सख्ती मे बदल गया है। यही कारण है कि उसका बे-समझ होकर अनुकरण करने से बहुत से कवि केवल काव्य के ककाल को खडा कर पाए हैं। परतु क काल के बाहर रक्त-मांस का सु दर आवरण तभी पनप सकता है जब उसके अ दर जीव भी हो।
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