पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२२९

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राम-[दो०] निर्गुण ते मैं सगुण भो, सुनु सुदरि तव हेत।
और कछू मांगौ सुमुखि, रुचै जो तुम्हरे चेत'॥११५॥
[सुदरी छद]
सीता--जो सवते हित मोकहँ कीजत।
ईश दया करिकै बरु दीजत॥
है जितने ऋषि देवनदी तट।
हौं तिनको पहिराय फिरौं पट॥११६॥
राम-[दो०] प्रथम दोहदै क्यों करौं निष्फल सुनि यह बात।
पट पहिरावन ऋषिन कों, जैयो सुदरि प्रात॥११७॥
[सुदरी छ द]
भोजन कै तब श्रीरघुनंदन।
पौढ़ि रहे बहु दुष्टनिकदन॥
बाजे बजे अधरात भई जब।
दूतन आइ प्रणाम करी तब॥११८॥
[चंचला छद]
दूत भूत भावना कही कही न जाय बैन।
कोटिधा विचारियो परै कछू विचार मैं न॥
सूर के उदोत होत बधु आइयो सुजान।
रामचद्र देखियौ प्रभात चंद्र के समान॥११९॥


(१) चेत = चित्त। (२) दोहदै = गर्भवती की इच्छा। (३) भूत भावना = किसी जीव के विचार।