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शुभ रेचक पूरक नाम जानि।
अरु कुंभकादि सुखदानि मानि॥५२॥
जो क्रम क्रम साधै साधु धीर।
सो तुमहि मिलै याही सरीर॥
राम--जग तुमते नहिं सर्वज्ञ आन।
अब कहौ देव पूजा-विधान॥५३॥
[तोमर छद]
वसिष्ठ-"सतचित्प्रकाश प्रभेव। तेहि वेद मानत देव॥
तेहि पूजि ऋषि रुचि मडि। सब प्राकृतन को छंडि॥५४॥
पूजा यहै उर आनु। निर्व्याज धरिए ध्यानु॥
यों पूजि घटिका एक। मनु कियो याग अनेक"॥५५॥
[दो०] यह पूजा अद्भुत अगिनि, सुनि प्रभु त्रिभुवन नाथ ।
सबै शुभाशुभ वासना, मैं जारी निज हाथ॥५६॥
[झूलना छद]
यहि भाँति पूजा पूजि जीव जो भक्त परम कहाइ।
भव भक्तिरस भागीरथी महँ देहि दुखनि बहाइ।
{पुनि महाकर्त्ता महात्यागी महाभोगी होइ।
अति शुद्ध भाव रमै रमापति पूजिहै सब कोइ॥५७॥
- वसिष्ठजी ने एक बार हिमालय पर जाकर घोर तपस्या की। शिवजी ने प्रसन्न होकर उनसे वर मॉगने को कहा। वसिष्ठजी ने कहा--"देव-पूजा-विधान बताइए।" इसके उत्तर में शिवजी ने जो कुछ कहा, उसी को इन दो पद्यों (५४,५५) मे वसिष्ठजी राम के सामने दोहरा रहे हैं।