पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२१६

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एकहि देह तियाग बिना सुनि।
हौ न कछू अभिलाष करौं मुनि॥४१॥
जो कुछ जीवउधारण को मत।
जानत हो तो कही तनु है रत॥
यो कहि मौन गही जगनायक।
केसवदास मनो - बच - कायक॥४२॥

वसिष्ठ-कथित मुक्तिमार्ग

[पद्धटिका छंद]

वसिष्ठ--तुम आदि मध्य अवसान एक।
अरु जीव जन्म समुझो अनेक॥
तुमहीं जो रची रचना बिचारि।
तेहि कौन भाँति समुझौं मुरारि॥४३॥
सब जानि बूझियत मोहिं राम।
सुनिए सो हौ जग ब्रह्म नाम॥
तिनके अशेप प्रतिबिंब जाल।
त्यइ जीव जानि जग मैं कृपाल॥४४॥

[निशिपालिका छद]

लोभ मद मोह बस काम जबहीं भयो।
भूलि गये रूप निज बीधि तिनसों गयो॥४५॥
[दो०] मुक्तिपुरी दरबार के, चारि चतुर प्रतिहार'।
साधुन को सतसग सम, अरु सतोप विचार॥४६॥


(१) प्रतिहार = दरवान। (२) सम = समता।