पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२१५

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कालकूट तैं मोहन रीति। मनिगन तै अति निष्ठुर प्रीति॥
मदिरा तैं मादकता लयी। मदर उदर भयी भ्रममयी॥३७॥
[दो०] शेष दई बहुजिह्वता, बहुलोचनता चारु।
अप्सरानि तै सीखियो, अपर पुरुष सचारु॥३८॥

रामविरक्ति-वर्णन
[विजय छंद]
खैचत लोभ दशौ दिशि को महि
मोह महा इत पासि कै डारे।
ऊँचे ते गर्ब गिरावत क्रोध सो
जीवहि लूहर' लावत भारे॥
ऐसे मो कोढ़ की खाजु ज्या केसव
मारत काम के बाण निनारे।
मारत पाँच करे पंचकूटहिं।
कासौं कहैं जगजीव बिचारे॥३९॥
[दो०]आँखिन आछत आँधरो, जीव करै बहु भाँति।
धीरन धीरज बिन करै, तृष्णा कृष्णा राति॥४०॥

[सुंदरी छद]
जैसहि है। अब तैसहि हौ जग।
आपद सपद के न चलौं मग॥


(१) लूहर = लूगर, लुआठ। (२) कोढ की खाजु = दुःख को और अधिक बढानेवाली वस्तु। (३) निनारे = न्यारे ही। (४) पचकूट = पाँच जनों का गुट या समूह।