किधौं कुलदेवि दिये अति केसव,
कै पुरदेविन को हुलस्यो गनु।
जहीं सो तहीं यहि भाँति लसै,
दिवि देविन को मद घालति है मनु॥२०॥
[पद्मावती छद]
रघुन दन आये, सुनि सब धाये पुर-जन जैसे तैसे।
दर्शन रस भूले तन मन फूले, बरने जाहिं न जैसे॥
पति के सँग नारी सब सुखकारी रामहिं यों दृग जोरी।
जहँ तहँ चहुँ ओरनि मिली झकोरनि चाहति चद चकोरी॥२१॥
[पद्धटिका छद]
बहु भाँति राम प्रति द्वार द्वार।
अति पूजत लोग सबै उदार॥
यहि भाँति गये नृपनाथ' गेह।
युत सुदरि सोदर स्यौं सनेह॥२२॥
[दो०] मिले जाय जननीन को, जबही श्री रघुराइ।
करुना रस अद्भुत भयो, मोपै कह्यो न जाइ॥२३॥
सीता सीतानाथजू, लक्ष्मन सहित उदार।
सबन मिले सब के किये, भोजन एकै बार॥२४॥
[सो०] पुरजन लोग अपार, यहई सब जानत भये।
हमहीं मिले अगार, आये प्रथम हमारेही॥२५॥
(१) नृपनाथ = राजा दशरथ। (२) अगार = सबसे अगाडी (पहले)।