पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२१०

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १६० )

राम-भरत-मिलन
[मदनमनोहर दडक]
आवत विलोकि रघुवीर लघु वीर तजि
व्योम गति भूतल विमान तब आइयो।
राम पद-पद्म सुख-सद्म कहँ बधु युग
दौरि तब षट्पद समान सुख पाइयो।
चूमि मुख सूँघि सिर अक रघुनाथ धरि
अश्रु-जल-लोचननि पेखि उर लाइयो।
देव मुनि वृद्ध परसिद्ध सब सिद्ध जन
हर्षि तन पुष्प-बरषानि बरषाइयो॥९॥
[दो०] भरत-चरण लक्ष्मण परे, लक्ष्मण के शत्रुघ्न।
सीता पग लागत दियो, आशिष शुभ शत्रुघ्न॥१०॥
मिले भरत अरु सत्रुहन, सुग्रीवहि अकुलाइ।
बहुरि विभीषन को मिले, अंगद को, सुख पाइ॥११॥

[आभीर छंद]
जामवंत नल नील। मिले भरत शुभ शील॥
गवय गवाक्ष गयद। कपिकुल सब सुखकद॥१२॥
ऋषि वशिष्ठ का देखि। जन्म सफल करि लेखि॥
राम परे उठि पाय। लक्ष्मण सहित सुभाय॥१३॥
[दो०]लै सुग्रीव विभीषणहिं, करि करि बिनय अन त।
पाँयन परे वसिष्ठ के, कविकुल बुधि बलवत॥१४॥