सियारामशरण (पद्य-कहानी-लेखक) और मैथिलीशरण (महा-
काव्यकार) को भी नहीं हुआ है। सजीवता लाने के लिये भी
संवादों को इस प्रकार नाटकीय ढग से रखना आवश्यक
नहीं है। सजीवता वार्तालाप में आनेवाली बातों में होती
है और बिना नाटकीय ढग के भी उसका अस्तित्व रह सकता
है। यह भी बात नहीं है कि केशवदास इस स्वतत्रता से
जान-बूझकर, काम लेना चाहते थे। उसे उन्होंने पद्धति रूप मे
स्वीकार नहीं किया है, यदि उन्हे यह अभीष्ट होता तो सर्वत्र
उसका निर्वाह करते। बात यह है कि प्रसन्नराघव तथा हनु-
मन्नाटक से केशव ने कई श्लोकों का ज्यों का त्यों अनुवाद किया
है जिन्हे उन्होंने प्रबध के भीतर पूर्ण रूप से पचाने का प्रयत्न
नहीं किया है। जहाँ पर उन्होंने उसे पद्धति के रूप मे लिया
है― ऐसे भी कुछ स्थल हैं― वहाँ पर का सौंदर्य कुछ दूसरा ही है,
वहाँ असमर्थता का भान भी नहीं होता। मेरा संकेत यहाँ पर
उन छंदों से है जिनमें प्रश्नोत्तर क्रम से चलते रहते हैं।
परतु इतना होने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि रामचंद्रिका प्रबध नहीं है, क्योंकि वस्तुतः प्रबध की धारा कहीं पर टूटती नहीं है, यद्यपि उस धारा का सूत्र पकडने में पाठक को कुछ देर अवश्य लग जाती है।
प्रबध-धारा के सूत्र को पकडने मे बाधा उपस्थित होने का एक और कारण रामचद्रिका में विद्यमान है। महाकाव्य के लिये नियम है कि उसके प्रत्येक सर्ग मे आदि से अंत तक