होम की रीति नई सिखई कछु मत्र दियो श्रुति लागि सिखाये।
हौं इत को पठयो उनको, उत लै प्रभु मदिर माँझ सिधाये॥११४॥
संदेश
शूर्पणखा जो विरूप करी तुम तात कियो हमहूँ दुख भारौ।
वारिधि बधन कीन्हों हुतो तुम मो सुत बधन कीन्हों तिहारौ॥
होइ जो होनी सो हैृ ही रहै, न मिटै, जिय कोटि विचार विचारौ।
दै भृगुनंदन को परसा रघुन दन सीतहिं लै पगु धारौ॥११५॥
[दो०] प्रति-उत्तर दूतहि दियो, यह कहि श्री रघुनाथ।
कहियो रावन होहिं जब, मदोदरि के साथ॥११६॥
[सयुता छंद]
रावण--कहि धौं विलब कहा भयो। रघुनाथ पै जब तू गयो।
केहि भाँति तू अवलोकियो। कहु तोहि उत्तर का दियो॥११७॥
[दडक]
दूत--भूतल के इद्र भूमि पौढे हुते रामचद्र,
मारीच कनकमृगछालहि बिछाये जू।
कुभहर कुभकर्णनासाहर गोद सीस
चरन अकप अच्छ-अरि उर लाये जू॥
देवांतक नारांतक अ तक त्यों मुसक्यात,
विभीषन बैन तन कानन रुखाये जू।
मेघनाद मकराच्छ महोदर प्रानहर,
बान त्यौं बिलोकत परस सुख पाये जू॥११८॥
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