पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१९

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( १३ ) (खंड काव्यों ) मे जिनमें या तो एक ही भाव पर जोर दिया जाता है अथवा जीवन का एक ही अश दृष्टि-पथ में लाया जाता है। इसके लिये जीवन के सब पहलुओं का चित्राकण आव- श्यक है जो विस्तार क बिना असंभव है। इसी दृष्टि से महा- काव्य के लिये बारह या अधिक सर्गों का विधान है। इस विस्तार का रामद्रिका मे अभाव नहीं है। प्राचीन सिद्धातों के अनुसार जीवन का वही सर्वांगीण चित्र श्लाघ्य माना जाता है, जो किसी महान व्यक्ति अथवा धीरोदात्त नायक को केद्र । बनाकर चला हो। आजकल की तरह इस उदात्तता की परख केवल भावों की शालीनता और महत्ता से ही नहीं होती थी, वश की उच्चता भी उसके लिये आवश्यक समझी जाती थी। उच्च भाव उच्च कुल के योग मे ही सार्वजनिक आक- पण के आधार हो सकते थे। इसलिये देवता, राजा, रान- कुमार अथवा मंत्री या उच्चपदस्थ ब्राह्मण ही किसी महाकाव्य के नायक हो सकते थे। सार्वजनिक रुचि का आकर्षण ही इस नियम का उद्देश्य था। कुल का आज वह महत्त्व नहीं रह गया है, जो प्राचीन काल में था इसलिये शायद उदात्तता के लिये उसकी आवश्यकता का अव उतनी तीव्रता से अनुभव न हो सके परंतु उसके उद्देश्य के सबध मे आज भी संदेह नहीं होना चाहिए। रामचद्रिका में इस नियम का भी पूर्ण रूप से पालन हुआ है। रामचद्र मे उच्च भावनाओं और कुलीनता का सहज समन्वय हुआ है। महाकाव्य के लिये