पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१६६

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[तोमर छंद]
हनुमान्--गइ मुद्रिका लै पार। मनि मोहिं ल्याई वार॥
कह कर्यो मै बल रक। अतिमृतक जारी लक॥७४॥
राम पयान
तिथि विजयदसंमी पाइ। उठि चले श्री रघुराई॥
हरि यूथ यूथप सग। बिन पच्छ के ते पतंग॥७५॥
[दडक]
सुग्रीव--कहै केसौदास, तुम सुनौ राजा रामचद्र,
रावरी जबहि सैन उचकि चलति है।
पूरति है भूरि धूरि रोदसिहिं आसपास,
दिसि दिसि बरषा ज्यौ बलनि बलति है॥
पन्नग पतंग तरु गिरि गिरिराज गन,
गजराज मृगराज राजनि दलति है।
जहाँ तहाँ ऊपर पताल पथ आइ जात,
पुरइनि के से पात पुहुमी हलति है॥७६॥
लक्ष्मण--भार के उतारिबे को अवतरे रामचद्र,
किधौं केसौदास भूरि भरन प्रबल दल।
टूटत है तरुवर गिरे गन गिरिवर,
सूखे सब सरवर सरिता सकल जल॥
उचकि चलत हरि दचकनि दचकत,
मच ऐसे मचकत भूतल के थल थल।


(१) रादसिहिं = भूमि और आकाश।