पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१५८

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चहुँ ओर चितै संत्रास । अवलोकियौ आकास ॥
तहँ शाख बैठो नीठि । तब पर यो वानर डीठि ॥३१॥
सीता-हनुमान-संवाद
तब कह्यौ, “को तू आहि । सुर असुर मोतन चाहि ॥
कै यच्छ, पच्छ बिरूप । दसकंठ वानर रूप ॥३२॥
कहि आपनौ तू भेद । न तु चित्त उपजत खेद ॥
कहि वेगि वानर, पाप । न तु तोहिं देहौं शाप" ॥
डरि वृच्छ शाखा झूमि । कपि उतरि आयौ भूमि ॥३३॥
[ पद्धटिका छंद ]
कर जोरि कह्यौ, 'हौं पवन-पूत ।
जिय जननि जानु रघुनाथ-दूत' ॥
'रघुनाथ कौन ?' 'दशरत्थ-न द ।'
'दशरथ कौन ?' 'अज-तनय चंद' ॥३४॥
'केहि कारण पठये यहि निकेत ?'
'निज देन लेन सदेश हेत ॥'
'गुन रूप सील सोभा सुभाउ ।
कछु रघुपति के लच्छन बताउ' ॥३५।।
'अति यदपि सुमित्रा-नंद भक्त ।
अति सेवक है अति सूर सक्त ॥
अरु यदपि अनुज तीन्यौ समान ।
पै तदपि भरत भावत निदान ॥३६।।


(१) नीठि = बड़ी मुश्किल से ।