पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१४९

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राम न लेखौ' चित्त लही सुख सपति जातें।
'मित्र' कह्यो गहि बाँह कानि कीजत है तातें ॥४२॥
[ दो०] लक्ष्मण किष्किंधा गये, वचन कहे करि क्रोध ।
तारा तब समुझाइयो, कीन्हों बहुत प्रबोध ॥४३॥
[ दोधक छ द]
बोलि लए हनुमान तबै जू।
ल्यावहु वानर बोलि सबै जू ॥
बार लगै न कहूँ बिरमाहीं ।
एक न कोउ रहै घर माहीं ॥४४॥
[त्रिभगी छ द]
सुग्रीव सँघाती मुख दुति राती,
केसव साथहि सूर नये ।
आकास विलासी सूरप्रकासी,
तब ही वानर आइ गये।
दिसि दिसि अवगाहन, सीतहि चाहन,
यूथप यूथ, सबै पठये ।
नल नील ऋच्छपति अ गद के सँग,
दक्षिण दिसि को बिदा भये ।।४५॥
सीताखोजहित वानर-सेना का प्रस्थान
[ दो०] बुधि विक्रम व्यवसाय युत, सीधु समुझि रघुनाथ ।
बल अन त हनुमत के, मुंदरी दीन्ही हाथ ॥४६।।


(१) न लेखौ = कुछ नहीं गिनते हो ।