पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१३८

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ८८ )

हर देत मंत्र जिनको विशाल ।
शुभ काशी मै पुनि मरन काल ॥
ते आये मेरे धाम आज ।
सब सफल करन जप तप समाज ॥८॥
फल भोजन को तेहि धरे आनि ।
भये यज्ञपुरुष अति प्रीति मानि ॥
तिन रामचद्र लक्ष्मण स्वरूप ।
तब धरे चित्त जग जोति-रूप ॥ ८१ ॥
[ दो० ] शबरी पावक पथ तब, हरखि गई हरिलोक ।
वनन विलोकत हरि गये, पपा तीर सशोक ।। ८२

पंपासर-वर्णन

[ तोटक छद ]

अति सु दर सीतल सोभ बसै ।
जहँ रूप अनेकनि लोभ लसै ॥
बहु पकज पंछि विराजत हैं।
रघुनाथ विलोकत लाजत हैं। ८३ ।।
सिगरी ऋतु शोभित सुभ्र जहीं।
लहै ग्रीषम पै न प्रवेश सही ॥
नव नीरज़ नीर तहाँ सरसै ।
सिय के सुभ लोचन से दरसै ॥ ८४ ॥