पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१३१

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मारीच-रामहिं मानुष के जनि जानौ । पूरण चौदह लोक बखानौ ।। जाहु जहाँ तिय लै सु न देखौं। है। हरि को जलहूँ थल लेखौं ॥४७।। [सुदरी छद] रावण-तू अब मोहि सिखावत है शठ । मैं वश जक्त कियो हठ ही हठ ।। वेगि चलै अब देहि न ऊतरु । vदेव सबै जन एक नहीं हरु ।।४८|| OR दो०] जॉचि चल्यो मारीच मन, मरण दुहूँ विधि आसु । रावण के कर नरक है, हरि कर हरिपुर वासु ॥४९॥ सीता-राम-मंत्रणा [सुदरी छद] राम-राजसुता इक मत्र सुनी अव । चाहत हैं। भुव-भार हर यो सब ।। पावक मै निज देहहि राखहु । छाय सरीर मृगै अभिलाषहु ।।५०|| ' [चामर छद] आइयौ कुरग एक चारु हेम-हीर को । जानकी समेत चित्त माहि राम वीर को। राजपुत्रिका समीप साधु बधु राखिकै । हाथ चाप-बाण लै गये गिरीश नॉखिकै।।५१॥