पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१२३

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( ७३ ) [दो०] रघुनायक सायक धरे, सकल लोक सिरमौर । गये कृपा करि भक्तिवश, ऋषि अगस्त्य के ठौर ।।९।। अगस्त्य-मिलन [वसततिलका छौंद] - EX श्रीराम लक्ष्मण अगस्त्य सनारि देख्यो । सीता सहित स्वाहा समेत सुभ पावक रूप लेख्यो॥ साष्टाग छिप अभिवदन जाइ कीन्हो। सान द आशिप अशेष ऋषीश दीन्हो ॥१०॥ बैठारि आसन सबै अभिलाष पूजे । सीता समेत रघुनाथ सबधु पूजे ॥ जाके निमित्त हम यज्ञ यज्यो' सो पायो । ब्रह्माडमडन स्वरूप जो वेद गायो ॥११॥ [पद्धटिका छ द] ब्रह्मादि देव जब विनय कीन । तट छीरसिंधु के परम दीन । तुम कह्यौ देव अवतरहु जाइ । सुत हौं दशरथ को होतु आइ ॥१२॥ हम तब तै मन आनद मानि । मन चितवत तव आगमन जानि ॥ ह्याँ रहिजै करिजै देव-काजु । मम फूलि फल्यो तप-वृक्ष आजु ॥१३॥ (१) यज्ञ यज्यो= यज्ञ किये।