पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१०५

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(76 पार ( ५५ ) [ दडक छ द] सीता-केसौदास नींद भूख प्यास उपहास त्रास दुख को निवास विष मुखहू गयौ परै। वायु को वहन, दिन दावा को दहन, बडी बाडवा-अनल-ज्वाल-जाल मे रह्यौ परै ॥2 जीरन जनम जात जोर जुर' घोर पीर पूरण प्रकट । परिताप क्यों कह्यौ परै। सहिहौं तपन ताप, पति के प्रताप, रघु- वीर को विरह वीर मोसों न सह्यौ परै ॥१६॥ लक्ष्मण प्रति राम का उपदेश [विशेपक छ द] राम-धाम रहो तुम लक्ष्मण राज की सेव करौ। मातनि के सुनि तात, सो दीरघ दुख हरौ॥ आइ भरत्थ कहा धौं करै जिय भाय गुनौ । जौ दुख दे. तो लै उरगौर, यह बात सुनौ ।।१७।। लक्ष्मण-दो०] शासन मेटो जाय क्यों, जीवन मेरे हाथ । - ऐसी कैसे बूझिए, घर सेवक, वन नाथ ॥१८॥ वनयात्रा [ द्रुतविलबित छ द] विपिन-मारग राम विराजहीं । सुखद सुदरि सोदर भ्राजहीं ।। (१) जुर = ज्वर । (२) उरगौ = अगीकार करो, सहो। 31