कहकर बुढ़ापे के सफेद बालों पर अफसोस करनेवाले केशव को भी ज्ञान-विज्ञान की सूझी और विज्ञानगीता रचकर उन्होंने राजा वीरसिंह को सुनाई। फिर उन्होंने राजकवि-पद से अवकाश चाहा और गगा-सेवन की आज्ञा माँगी। उनकी इच्छा के अनुसार उनकी वृत्ति और उनका पद उनके लडकों को दिया गया। इस बात का उल्लेख विज्ञानगीता मे इस प्रकार है- "सुनि सुनि केशवदास सो रीमि कह्यो नृपनाथ । माँगि मनोरथ चित्त के कीजै सबै सनाथ ॥" "वृत्ति दयी पुरुषान की देउ बालकनि आसु । मोहि आपनो जानि के गगातट द्यौ वासु।" "वृत्ति दयी पदवी दयी दूरि करौ दुख त्रास । जाइ करौ सकलत्र श्री गगा-तट बस बास ॥" इससे मालूम होता है कि स० १६६७ मे वे स्त्री सहित गंगातट पर किसी तीर्थ मे चले गये। परतु बहुत समय तक वहाँ रहे नहीं, क्योंकि स० १६६९ मे उन्होंने जहाँगीर-जस- च द्रिका लिख डाली जिसे लिखने की उन्हे विरक्त दशा मे आवश्यकता न पड़ती।। केशव हिंदी-साहित्य के इतिहास मे प्रथम दिग्गज आचार्य थे। उन्होंने ही पहले-पहल हिंदी मे साहित्य-शास्त्र के अध्ययन का विस्तीर्ण तथा अप्रतिबद्ध मार्ग खोला। 'कवि- प्रिया', 'रसिकप्रिया' आदि उनके लक्षण-ग्रथों से उनके सस्कृत-साहित्य के अगाध ज्ञान का पता चलता है। अपने
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