की वह चेष्टा करता है। जब उसे यह बात बतलाई जाती है
कि सार्वजनिक कामों की आलोचना का प्रतिबन्ध करने से
लाभ के बदले हानि ही अधिक होती है, तब वह अक्सर यह
कह बैठता है कि हम समालोचना को नहीं रोकते, किन्तु
"व्यर्थ निन्दा" को रोकना चाहते हैं। अतएव ऐसे व्यर्थ-निन्दा-
प्रतिरोधक लोगों के लाभ के लिए हमने पहले इसी पुस्तक को
लिखना मुनासिब समझा; क्योंकि प्रतिबन्ध-हीन विचार और
विवेचना की जितनी महिमा इस पुस्तक में गाई गई है, उतनी
शायद ही कहीं गाई गई हो।
जिस आदमी को सर्वज्ञ होने का दावा नहीं है, उसे अपने काम-काज की विवेचना या समालोचना को रोकने की भूल से भी चेष्टा न करनी चाहिए। और इस तरह की चेष्टा करना सार्वजनिक समाज के लिए तो और भी अधिक हानिकारक है। भूलना मनुष्य की प्रकृति है। बड़े बड़े महात्माओं और विद्वानों से भूलें होती हैं। इससे यदि समालोचना बन्द कर दी जायगी -- यदि विचार और विवेचना की स्वाधीनता छीन ली जायगी -- तो सत्य का पता लगाना असम्भव हो जायगा। लोगों की भूलें उनके ध्यान में आवेंगी किस तरह ? हाँ, यदि वे सर्वज्ञ हों तो बात दूसरी है।
व्यर्थ निन्दा कहते किसे हैं ? व्यर्थ निन्दा से मतलब शायद
झूठी निन्दा से है। जिसमें जो दोष नहीं है, उसमें उस दोष के
आरोपण का नाम व्यर्थ निन्दा हो सकता है। परन्तु इसका
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