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ही दिनों में उसकी लाखों कापियाँ बिक गई। जापान के राजेश्वर खुद मिकाडो ने उसकी कई हज़ार कापियाँ अपनी तरफ़ से मोल लेकर अपनी प्रजा को मुफ्त़ में बाँट दीं। परन्तु इस देश की दशा बिलकुल ही उलटी है। यहाँ मोल लेने का तो नाम ही न लीजिये, यदि इस तरह की पुस्तकें यहाँ के राजा, महाराजा और अमीर आदमियों के पास कोई यों ही भेज दे, तो भी शायद वे उन्हें पढ़ने का कष्ट न उठावें। इससे बहुत सम्भव है कि हमारी यह पुस्तक बे-छपी ही रह जाय! खैर!

इस दशा में हमारी राय यह है कि इस समय हिन्दी में जितनी पुस्तकें लिखी जाएँ, खूब सरल भाषा में लिखी जायँ। यथासम्भव उनमें संस्कृत के कठिन शब्द न आने पावें। क्योंकि जब लोग सीधी सादी भाषा की पुस्तकों ही को नहीं पढ़ते, तब वे क्लिष्ट भाषा की पुस्तकों को क्यों छूने लगे। अतएव जो शब्द बोलचाल में आते हैं -- फिर चाहे वे फ़ारसी के हों, चाहे अरबी के हों, चाहे अँगरेजी के हों -- उनका प्रयोग बुरा नहीं कहा जा सकता। पुस्तक लिखने का मतलब सिर्फ यह है कि उसमें जो कुछ लिखा गया है, उसे लोग समझ सकें। यदि वह समझ में न आया, अथवा क्लिष्टता के कारण उसे किसी ने न पढ़ा, तो लेखक की मिहनत ही बरबाद जाती है। पहले लोगों में साहित्य-प्रेम पैदा करना चाहिए। भाषा-पद्धति पीछे से ठीक होती रहेगी।

इन्हीं कारणों से प्रेरित होकर हमने मिल की स्वाधीनता

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