यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।


ट्रांसवाल और आरेंज-फ्री-स्टेट में भी वे पहुँचे और धीरे धीरे बस गये। मज़दूरी छोड़ने पर वे लोग स्वतन्त्रतापूर्वक स्वयं भी व्यापार और खेती करने लगे।

१८६० ईस्वी में भारत से पहले-पहल मज़दूर भेजे गये थे। इन मज़दूरों ने अफ़रीक़ा में बहुत सन्तोषजनक काम किया। अफ़रीक़ावाले इनके परिश्रम और इनकी कार्य-दक्षता पर बड़े प्रसन्न हुए। पर कारणवश यह शर्त -- बन्दी, १८६६ ईसवी में, तोड़ दी गई। शर्तबन्दी टूटतेही अफ़रीक़ा में फिर मज़दूरों की कमी हो गई। अतएव १८७७ ईसवी से फिर हिन्दुस्तानी मज़- दूर अफ़रीक़ा जाने लगे। तबसे दस पन्द्रह वर्षों तक अफ़रीक़ा में रहनेवाले हिन्दुस्तानियों को सब तरह से आराम रहा।

कुछ समय बाद ट्रान्सवाल-वालों को भारतीयों का वहाँ रहना खटकने लगा। अपनी मिहनत और अपनी किफ़ायत- शारी से भारतवासी खेती और व्यापार आदि से बहुत रुपया पैदा करने लगे थे। इससे ट्रांसवालवालों ने अपनी हानि समझी। अतएव उन्होंने १८८५ ईसवी में एक क़ानून बनाकर हिन्दुस्तानियों का विरोध आरम्भ किया। क़ानून यह बना कि कोई भी भारतवासी यदि वहाँ व्यापार के लिए रहना चाहे तो उसे एक नियत फ़ीस देकर अपना नाम रजिस्टरी कराना पड़ेगा। साथ ही सफ़ाई के लिहाज़ से हिन्दुस्तानियों ही को नहीं, सारे एशियावासियों को शहर के बाहर एक नियत स्थान पर रहना पड़ेगा।

१४७