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वाले अपने सिर में मोमवत्ती खोंस कर काम करते हैं। कोयले की खानों में गैसों के जल उठने का जैसा डर रहता है, वैसा सोने की खानों में नहीं। इसलिए उनमें सेफ्टी लैम्पों की कोई आवश्यकता नहीं। जिन लैम्पों से आग लग जाने का डर नहीं होता, उन्हें सेफ्टी लैम्प कहते हैं। सोने की खानों का नीचे का भाग लोहे की खानों की तरह बहुत लम्बा चौड़ा नहीं होता । खानों के जिस तरफ़ क्वार्टूज पाये जाते हैं, केवल उसी तरफ़ सुरङ्ग कर लिया जाता है।

जिन खानों के प्रस्तर-रेणु में कम से कम इतना सोना मिलने की आशा होती है कि सब ख़र्च निकाल कर कुछ लाभ हो, उन्हीं खानों से पत्थर की. बालू निकाली जाती है। बालू को बाहर निकाल कर कल-घर में भेजते हैं। वहाँ वह पीस कर मैदे की तरह बना दी जाती है। इस मैदे में सोने के कण भी मिले रहते हैं। सोने के इन कणों को पत्थर की रेणु से अलग करने के लिए पहले वह पानी में घोली जाती है। इसके बाद वह पानी बड़े बड़े बरतनों में रक्खे हुए पारे के ऊपर डाल दिया जाता है। इस समय एक अङ्गरेज़ कर्मचारी पानी और पारे को ख़ूब हिलाता मिलाता है। फल यह होता है कि सोने की रेणु पारे में मिल जाती है और पत्थर की बालू मिला हुआ पानी ऊपर उतराता रहता है। थोड़ी देर बाद वह पानी बाहर फेंक दिया जाता है। यह क्रिया कई बार दुहराई तिहराई जाती है। यहाँ तक कि पत्थर के मैदे का सम्पूर्ण सोना पारे में मिल

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