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प्रातःकाल, सूर्योदय के पूर्व ही, व्योमयान यात्रा की तैयारी करता है। उसका गोदाम बिजली के प्रकाश से चमक उठता है। उन हौज़ों और नलों में पानी भरा जाता है जो उड़ते समय अपने बोझ से यान का बोझ साधते हैं। इस बात की अच्छी तरह परीक्षा कर ली जाती है कि इन हौज़ों और नलों में कोई नुक्स़ तो नहीं। फिर चमड़े के नलों द्वारा लोहे के पीपों में बन्द गेस व्योमयान के इंजिन में पहुँचाया जाता है। उसमें गेस के पहुँचते ही घोर नाद होना आरम्भ होता है। यन्त्रकार लोग यन्त्रों की परीक्षा करते हैं। इतने में सूर्योदय हो जाता है। कप्तान आता है और मुसाफिर लोग भी एक एक करके आने लगते हैं। व्योमयान का एक दरवाजा खुलता है और उसमें से एक छोटी सीढ़ी नीचे भूमि पर लटका दी जाती है। लोग उसी पर चढ़ कर व्योमयान के भीतर पहुँचते हैं। यात्रियों की संख्या चौबीस से अधिक नहीं होती। उनके भोजनादि के प्रबन्ध के लिए एक बावर्ची भी व्योमयान पर रहता है।

अव आदमियों का एक दल और आता है। व्योमयान को गोदाम से बाहर ले जाकर उस स्थान पर पहुँचाना, जहाँ से वह उड़ता है, इन लोगों का काम है। यात्री अपने मित्रों और स्नेहियों से विदा होते हैं। सीटी बजती है। तमाशबीन पीछे हट जाते हैं। नीचे लटकी हुई सीढ़ी लपेट कर ऊपर उठा ली जाती है। आये हुए दल के लोग व्योमयान के अगले हिस्से के चारों तरफ़ फैल जाते हैं और उनमें से हर एक

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